Revision Notes for Chapter 4 मनुष्यता Class 10 Sparsh
CBSE NCERT Revision Notes1
पाठ परिचय
Answer
प्रस्तुत पाठ में कवि मैथलीशरण गुप्त ने सही अर्थों में मनुष्य किसे कहते हैं उसे बताया है। कविता परोपकार की भावना का बखान करती है तथा मनुष्य को भलाई और भाईचारे के पथ पर चलने का सलाह देती है।
2
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
Answer
कवि कहते हैं मनुष्य को ज्ञान होना चाहिए की वह मरणशील है इसलिए उसे मृत्यु से डरना नहीं चाहिए परन्तु उसे ऐसी सुमृत्यु को प्राप्त होना चाहिए जिससे सभी लोग मृत्यु के बाद भी याद करें। कवि के अनुसार ऐसे व्यक्ति का जीना या मरना व्यर्थ है जो खुद के लिए जीता हो। ऐसे व्यक्ति पशु के समान है असल मनुष्य वह है जो दूसरों की भलाई करे, उनके लिए जिए। ऐसे व्यक्ति को लोग मृत्यु के बाद भी याद रखते हैं।
शब्दार्थ:
• मर्त्य - मरणशील
• सुमृत्यु - श्रेष्ठ मृत्यु
• वृथा - बेकार
• पशु-प्रवृत्ति - पशु जैसा स्वभाव
शब्दार्थ:
• मर्त्य - मरणशील
• सुमृत्यु - श्रेष्ठ मृत्यु
• वृथा - बेकार
• पशु-प्रवृत्ति - पशु जैसा स्वभाव
3
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
Answer
कवि के अनुसार उदार व्यक्तियों की उदारशीलता को पुस्तकों, इतिहासों में स्थान देकर उनका बखान किया जाता है, उनका समस्त लोग आभार मानते हैं तथा पूजते हैं। जो व्यक्ति विश्व में एकता और अखंडता को फैलता है उसकी कीर्ति का सारे संसार में गुणगान होता है। असल मनुष्य वह है जो दूसरों के लिए जिए मरे।
शब्दार्थ:
• उदार - दयाशील/सहृदय
• धरा - धरती/पृथ्वी
• बखानती - गुणगान करती
• कृतार्थ - आभारी
• कीर्ति - यश
• कूजती - मधुर ध्वनि करती
• सृष्टि - संसार
• अखंड - जो कभी खंडित न हो
• असीम - सीमा रहित
• विश्व - संसार
शब्दार्थ:
• उदार - दयाशील/सहृदय
• धरा - धरती/पृथ्वी
• बखानती - गुणगान करती
• कृतार्थ - आभारी
• कीर्ति - यश
• कूजती - मधुर ध्वनि करती
• सृष्टि - संसार
• अखंड - जो कभी खंडित न हो
• असीम - सीमा रहित
• विश्व - संसार
4
क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
Answer
इन पंक्तियों में कवि ने पौरणिक कथाओं का उदारहण दिया है। भूख से व्याकुल रंतिदेव ने माँगने पर अपना भोजन का थाल भी दे दिया तथा देवताओं को बचाने के लिए दधीचि ने अपनी हड्डियों को व्रज बनाने के लिए दिया। राजा उशीनर ने कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर का मांस बहेलिए को दे दिया और वीर कर्ण ने अपना शारीरिक रक्षा कवच दान कर दिया। नश्वर शरीर के लिए मनुष्य को भयभीत नही होना चाहिए।
शब्दार्थ:
• क्षुधार्त (क्षुधा + आर्त) - भूख से व्याकुल
• रंतिदेव - एक परम दानी राजा
• करस्थ - हाथ में पकड़ा हुआ
• दधीचि - एक प्रसिद्ध ऋषि
• अस्थिजाल - हड्डियों का समूह
• उशीनर - गांधार देश का राजा
• क्षितीश - राजा
• स्वमांस - अपने शरीर का मांस
• सहर्ष - प्रसन्नतापूर्वक
• चर्म - चमड़ा
• अनित्य - नष्ट होने वाली
शब्दार्थ:
• क्षुधार्त (क्षुधा + आर्त) - भूख से व्याकुल
• रंतिदेव - एक परम दानी राजा
• करस्थ - हाथ में पकड़ा हुआ
• दधीचि - एक प्रसिद्ध ऋषि
• अस्थिजाल - हड्डियों का समूह
• उशीनर - गांधार देश का राजा
• क्षितीश - राजा
• स्वमांस - अपने शरीर का मांस
• सहर्ष - प्रसन्नतापूर्वक
• चर्म - चमड़ा
• अनित्य - नष्ट होने वाली
5
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है वही,
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
Answer
कवि ने सहानुभूति, उपकार और करुणा की भावना को सबसे बड़ी पूंजी बताया है और कहा है की इससे ईश्वर भी वश में हो जाते हैं। बुद्ध ने करुणावश पुरानी परम्पराओं को तोड़ा जो कि दुनिया की भलाई के लिए था इसलिए लोग आज भी उन्हें पूजते हैं। उदार व्यक्ति वह है जो दूसरों की भलाई करे।
शब्दार्थ:
• महाविभूति - बड़ी भारी पूँजी
• वशीकृता - वश में की हुई
• मही - धरती, पृथ्वी
• विनीत - नम्र
• लोकवर्ग - जनमानस
• उदार - दयाशील
शब्दार्थ:
• महाविभूति - बड़ी भारी पूँजी
• वशीकृता - वश में की हुई
• मही - धरती, पृथ्वी
• विनीत - नम्र
• लोकवर्ग - जनमानस
• उदार - दयाशील
6
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
Answer
कवि कहते हैं की अगर किसी मनुष्य के पास यश, धन-दौलत है तो उसे इस बात के गर्व में अँधा होकर दूसरों की उपेक्षा नही करनी नहीं चाहिए क्योंकि इस संसार में कोई अनाथ नहीं है। ईश्वर का हाथ सभी के सर पर है। प्रभु के रहते भी जो व्याकुल है वह बड़ा भाग्यहीन है।
शब्दार्थ:
• मदांध - गर्व में अंधा
• तुच्छ - कम
• वित्त - धन
• चित्त - हृदय
• त्रिलोकनाथ - तीनों लोकों के स्वामी
• दीनबंधु - दीनों पर दया करने वाले
• अतीव - अत्यधिक
• बहुत अधीर - बेचैन
• मदांध - गर्व में अंधा
• तुच्छ - कम
• वित्त - धन
• चित्त - हृदय
• त्रिलोकनाथ - तीनों लोकों के स्वामी
• दीनबंधु - दीनों पर दया करने वाले
• अतीव - अत्यधिक
• बहुत अधीर - बेचैन
7
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
Answer
कवि के अनुसार अनंत आकाश में असंख्य देवता मौजूद हैं जो अपने हाथ बढ़ाकर परोपकारी और दयालु मनुष्यों के स्वागत के लिए खड़े हैं। इसलिए हमें परस्पर सहयोग बनाकर उन ऊचाइयों को प्राप्त करना चाहिए जहाँ देवता स्वयं हमें अपने गोद में बिठायें। इस मरणशील संसार में हमें एक-दूसरे के कल्याण के कामों को करते रहें और स्वयं का उद्धार करें।
शब्दार्थ:
• अनंत - जिसका अंत न हो
• समक्ष - सामने
• स्वबाहु - अपनी बाँहें
• परस्परावलंब - एक दूसरे का सहारा
• अमर्त्य-अंक - देवता की गोद
• अपंक - कलंक-रहित
शब्दार्थ:
• अनंत - जिसका अंत न हो
• समक्ष - सामने
• स्वबाहु - अपनी बाँहें
• परस्परावलंब - एक दूसरे का सहारा
• अमर्त्य-अंक - देवता की गोद
• अपंक - कलंक-रहित
8
'मनुष्य मात्र बन्धु है' यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
Answer
सभी मनुष्य एक दूसरे के भाई-बंधू है यह बहुत बड़ी समझ है सबके पिता ईश्वर हैं। भले ही मनुष्य के कर्म अनेक हैं परन्तु उनकी आत्मा में एकता है। कवि कहते हैं कि अगर भाई ही भाई की मदद नही करेगा तो उसका जीवन व्यर्थ है यानी हर मनुष्य को दूसरे की मदद को तत्पर रहना चाहिए।
शब्दार्थ:
• विवेक - सही-गलत का निर्णय लेने की शक्ति
• स्वयंभू - परमात्मा/स्वयं उत्पन्न होने वाला
• बाह्य - बाहरी
• अंतरैक्य - आत्मा की एकता
• अंत:करण - की एकता
• प्रमाणभूत - साक्षी, व्यथा = कष्ट/दुःख
शब्दार्थ:
• विवेक - सही-गलत का निर्णय लेने की शक्ति
• स्वयंभू - परमात्मा/स्वयं उत्पन्न होने वाला
• बाह्य - बाहरी
• अंतरैक्य - आत्मा की एकता
• अंत:करण - की एकता
• प्रमाणभूत - साक्षी, व्यथा = कष्ट/दुःख
9
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
Answer
अंतिम पंक्तियों में कवि मनुष्य को कहता है कि अपने इच्छित मार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक हंसते खेलते चलो और रास्ते पर जो बाधा पड़े उन्हें हटाते हुए आगे बढ़ो। परन्तु इसमें मनुष्य को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका आपसी सामंजस्य न घटे और भेदभाव न बढ़े। जब हम एक दूसरे के दुखों को दूर करते हुए आगे बढ़ेंगे तभी हमारी समर्थता सिद्ध होगी और समस्त समाज की भी उन्नति होगी।
शब्दार्थ:
• अभीष्ट - इच्छित
• सहर्ष - प्रसन्नतापूर्वक
• विपत्ति - मुश्किल
• विघ्न - रुकावट
• अतर्क - तर्क से रहित
• सतर्क पंथ - सावधान यात्री
शब्दार्थ:
• अभीष्ट - इच्छित
• सहर्ष - प्रसन्नतापूर्वक
• विपत्ति - मुश्किल
• विघ्न - रुकावट
• अतर्क - तर्क से रहित
• सतर्क पंथ - सावधान यात्री